बेची जा रहीं सरकारी कंपनियां, नई लिस्ट तैयार, बस चाहिए सही खरीददार

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नई दिल्ली. ऑनलाइन टीम – कोरोना महामारी के कारण सरकार की वित्तीय हालत खराब है। ऐसे में मोदी सरकार नॉन-स्ट्रेटेजिक सेक्टर से पूरी तरह निकलना चाहती है। इस दिशा में बहुत तेजी से काम किया जा रहा है। चालू वित्त वर्ष में सरकार स्ट्रेटेजिक सेल के लिए जरिए सरकार 1.2 लाख करोड़ जुटाना चाहती है। इसके अलावा पब्लिक सेक्टर बैंक्स और फाइनैंशल इंस्टिट्यूशन में विनिवेश के जरिए भी 90 हजार करोड़ का फंड इकट्ठा करेगी।

इसके लिए नॉन-स्ट्रेटेजिक पब्लिक सेक्टर यूनिट की पहचान की जा रही है और सरकार इसके असेट का मौद्रीकरण करना चाहती है। बता दें कि डिफेंस, बैंकिंग, इंश्योरेंस, स्टील, फर्टिलाइजर और पेट्रोलियम स्ट्रेटेजिक सेक्टर के तहत आते हैं। सरकार इससे बाहर नहीं निकलेगी, हालांकि प्राइवेट प्लेयर्स की भी इसमें एंट्री होगी, ताकि कॉम्पटिशन बढ़ें और कामकाज के क्वॉलिटी में सुधार हो।

निजीकरण के लिए पूरी तरह से नई लिस्ट तैयार की जा रही है। पहली लिस्ट में 48 PSU में विनिवेश को लेकर आयोग ने पिछली बैठक के बाद अपने सुझाव दिए थे। अब नीति आयोग ने सभी मंत्रालयों से कहा है कि वे अपने-अपने विभाग के अंतर्गत आने वाले उन PSE की पहचान करें, जिनमें सरकार स्ट्रेटेजिक सेल कर सकती है। इस डील में मालिकाना हक और कंट्रोल दोनों ट्रांसफर किए जाएंगे।

ध्यान रहे, देश में निजीकरण और विनिवेश एक ऐसे माहौल में हो रहा है, जब देश में बेरोज़गारी एक बड़े संकट के रूप में मौजूद है। देश में पूँजी की सख़्त कमी है। घरेलू कंपनियों के पास पूँजी नहीं है। इनमें से अधिकतर क़र्ज़दार भी हैं। बैंकों की हालत भी ढीली है। विनिवेश के पक्ष में तर्क ये है कि सरकारी कंपनियों में कामकाज का तरीक़ा प्रोफेशनल नहीं रह गया है और उस वजह से बहुत सारी सरकारी कंपनियां घाटे में चल रही हैं। इसलिए उनका निजीकरण किया जाना चाहिए, जिससे काम-काज के तरीक़े में बदलाव होगा और कंपनी को प्राइवेट हाथों में बेचने से जो पैसा आएगा उसे जनता के लिए बेहतर सेवाएं मुहैया करवाने में लगाया जा सकेगा। यहां यह भी ख्याल में रखा जाना चाहिए कि निजीकरण और विनिवेश में अंतर है। निजीकरण में सरकार अपनी कंपनी में 51 फीसदी या उससे ज़्यादा हिस्सा किसी कंपनी को बेचती है, जिसके कारण कंपनी का मैनेजमेंट सरकार से हटकर ख़रीदार के पास चला जाता है।

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