कोरोनाकाल का बड़ा स्कैंडल…हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्वीन के लिए संकट बने भारतीय मूल के ही तीन रिसर्चर्स, डेटा को लेकर गंभीर सवाल

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लंदन : समाचार ऑनलाइन – कोरोना वायरस इन्फेक्शन के इलाज के लिए मलेरिया की दवा हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्वीन के ट्रायल पर पिछले हफ्ते विश्व स्वास्थ्य संगठन ने रोक लगा दी थी। याद रहे इसी हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्वीन दवा की खेप भेजे जाने पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत को मुसीबत में साथ देने वाले सच्चे देश के रूप में निरूपित किया था। डोनाल्ड ट्रंप, WHO और चीन के त्रिकोणात्मक युद्ध के बीच WHO ने कह दिया कि हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्वीन का सेवन खतरनाक है, इस पर रोक लगना चाहिए। WHO ने यह कदम प्रतिष्ठित पत्रिका ‘द लैंसेट’ की जिस स्टडी के बाद उठाया था, अब उसे कोरोना काल के पहले बड़े रिसर्च स्कैंडल के तौर पर देखा जा रहा है। हालांकि इस स्टडी को ही वापस ले लिया गया है, क्योंकि इसमें इस्तेमाल किए गए डेटा को लेकर गंभीर सवाल खड़े हो गए थे। गौर करने वाली बात यह है कि इस स्टडी के लेखकों सपन देसाई, मंदीप मेहरा और अमित पटेल ने अपने एक और पेपर को भी वापस ले लिया है, जो ‘द न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन’ में छपा था।

पेंच यहां है: मशहूर जर्नल ‘साइंस’ के लिए चार्ल्स पिलर और केली सरविक की एक रिपोर्ट के मुताबिक इन रिसर्चर्स ने सपन देसाई की शिकागो की कंपनी Surgisphere से अस्पतालों का डेटा लिया था। जब लैंसेट में स्टडी छपने के बाद डेटा को लेकर सवाल उठे तो उसका इंडिपेंडेंट रिव्यू शुरू किया गया, लेकिन कंपनी के नियमों के चलते रिव्यू के लिए डेटा नहीं दिया गया। निजता और क्लाइंट अग्रीमेंट का हवाला देते हुए क्लाइंट कॉन्ट्रैक्ट और ऑडिट रिपोर्ट रिव्यू के लिए सर्वर को नहीं दी गईं। इसलिए जिस डेटा के आधार पर तीनों ने पेपर पब्लिश किया था, उसकी वैधता ही अमान्य हो गई और तीनों ने अपना पेपर वापस लेने का ऐलान कर दिया और जिस स्टडी के आधार पर WHO ने HCQ पर लगाई थी रोक, उसे द लैंसेट ने वापस लिया

मृत्युदर बढ़ने का था दावा : देसाई, पटेल और मेहरा के अलावा ज्यूरिक के यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल के फ्रैंक रूशिजका भी इस स्टडी के लेखक थे। इसमें दावा किया गया था कि मर्कोलाइड के बिना या उसके साथ भी क्लोरोक्वीइन और HCQ के इस्तेमाल से कोविड-19 मरीजों की मृत्युदर बढ़ जाती है। शोधकर्ताओं ने कोरोना वायरस से संक्रमित 96,000 मरीजों के शामिल होने का दावा किया था। उन्होंने कहा था कि संक्रमित लोगों में से 15,000 को हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन या क्लोरोक्वीन दवा एटीबायोटिक के साथ और उसके अलावा दी गई, जिसके आधार पर दावा किया गया कि हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन या क्लोरोक्वीन दवा लेने वाले मरीजों में मृत्युदर ज्यादा देखी गई।
Surgisphere के डेटा पर सवाल : ज्यादातर क्लिनिशन्स और बायोस्टेटिस्क्स और मेडिकल एथिक्स के एक्सपर्ट्स ने सवाल किया गया कि Surgisphere जैसी छोटी कंपनी ने कैसे सैकड़ों अस्पतालों के कई हजार मरीजों के डेटा को कैसे कलेक्ट किया और उसका अनैलेसिस किया। Surgisphere के पास पहले इतने बड़े स्तर पर डेटा अनैलेसिस का अनुभव नहीं रहा है। खासकर WHO की रोक के बाद वे रिसर्चर्स काफी नाराज हुए जो HCQ पर काम कर रहे थे, क्योंकि लैंसेट के दावे के मुताबिक HCQ से मृत्युदर बढ़ रही थी। ऐसे में उनके ट्रायल के लिए वॉलंटिअर्स कम होने गए।

मेहरा ने जल्दीबाजी के लिए माफी मांगी : साइंस की रिपोर्ट के मुताबिक मेहरा ने खुद कहा है कि जब Surgisphere ने मैरीलैंड इंस्टिट्यूट को डेटा देने से इनकार कर दिया तो डेटा की वैधता में उन्हें विश्वास नहीं रह गया है और न ही उन पर आधारित नतीजों पर। उन्होंने माना है कि COVID-19 संकट के दौरान पेपर छापने की जल्दी में उन्होंने यह सुनिश्चित हीं किया कि डेटा का स्रोत इस काम के लिए सही है। उन्होंने इसके लिए माफी भी मांगी है।
कितना डेटा ऐक्सेस हो : डेटा को लेकर यह जानकारी सामने आने के बाद सवाल उठने लगे हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा के बायोएथिसिस्ट ले टर्नर ने साइंस को बताया है कि Surgisphere केस के बाद यह सवाल खड़ा हो गया है कि किसी लेखक और जर्नल को डेटा पर कितना ऐक्सेस मिलना चाहिए। जितना कम ऐक्सेस होगा, उतनी ज्यादा संभावना गलतियों की, डेटा से छेड़छाड़ की और फर्जीवाड़े की भी होगी।

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